Wednesday, January 5, 2011

तरक्की
सतपाल (सत्तू) सोलह साल का हो गया, गांव के स्कूल से दसवीं पास कर ली, पर कभी किसी बड़े शहर में नहीं गया था । पेपर होने के बाद इस बार उसका बड़ा भाई उसे अपने साथ बंबई ले

गया ।

बंबई जाकर सत्तू सोचने लगा कि यहां इतनी तरक्की का राज क्या है । उसने देखा कि वहां छोटे-छोटे कामों के लिए ज्यादा वक्त बरबाद नहीं करना पड़ता और उस बचे हुए समय में काम करने से

तरक्की होती है । गांव में तो दीर्घशंका (जंगल-जोहड़/Latrine) के लिए एक कोस दूर जाना पड़ता था और बंबई में या तो घरों में ही गुसलखाने हैं या फिर लोग घरों के आस-पास या

रेलवे लाइन के किनारे बैठकर अपना काम निपटा देते हैं - इससे टाइम की बचत होती है और यही तरक्की का राज है ।

गांव वापस आकर सत्तू गांव के बिल्कुल साथ किसी के घर के पीछे 'रोग काटने' बैठ जाता । जब कई दिन हो गये तो गांव के कुछ बुजुर्ग लोगों ने उसे टोक दिया । सत्तू गुस्से में आकर बोला :

"तुम सारे बूढे नाश की जड़ सो - ना तुम खुद तरक्की कर सकते और ना दूसरां नै करण देते" !!!
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ढ़ाबे की दाल


केशव दहिया** कालिज में पढ़ता था, एक बार उसे आस्ट्रेलिया का ट्यूरिस्ट वीजा मिल गया । वहां जाकर उसने एक भारतीय छात्र के कमरे में डेरा डाल लिया । उस लड़के ने उसे ठहरा तो

लिया पर बता दिया कि वो अपना खाना खुद बना लिया करे ।

केशव ने पहले दिन दाल बनाई और उस लड़के को भी खिलाई । उसने कहा - "अरै केसू, तेरे हाथ की दाल खा-कै तै मन्नै नत्थू का ढाबा याद आ-ग्या"। फिर तो रोज दाल ही बनने लगी -

सब्जी खरीदने में तो केशव के पैसे खर्च होते थे । किचन में कई डिब्बों में दालें तो पड़ी ही थी - अच्छी पतली-सी दाल बना कर पीने भी लगा। फिर महीने भर बाद उस लड़के ने देखा कि जो

दालें वो खुद पहले भारत से खरीद कर लाया था, वे तो इस केशव की वजह से खतम होने को हैं । उसने केशव को टोक दिया कि भाई कभी सब्जी भी खरीद कर बना लिया कर ।

केशव ने जवाब दिया कि उसको तो सिर्फ दालें ही पसंद हैं । उसके साथी ने जवाब दिया : " तै न्यूं कर कि इस कमरे में हळ चला दे और थोड़ी सी दाल बो दे"

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